शनिदेवता :

वैदूर्य कांति रमल:,प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरत: . अन्यापि वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज: अव्यतीति मुनि प्रवाद:

भावार्थ:-शनि ग्रह वैदूर्यरत्न अथवा बाणफ़ूल या अलसी के फ़ूल जैसे निर्मल रंग से जब प्रकाशित होता है,तो उस समय प्रजा के लिये शुभ फ़ल देता है यह अन्य वर्णों को प्रकाश देता है,तो उच्च वर्णों को समाप्त करता है,ऐसा ऋषि महात्मा कहते हैं. शनि ग्रह के प्रति अनेक आखयान पुराणों में प्राप्त होते हैं.शनि को सूर्य पुत्र माना जाता है.लेकिन साथ ही पितृ शत्रु भी.शनि ग्रह के सम्बन्ध मे अनेक भ्रान्तियां और इस लिये उसे मारक,अशुभ और दुख कारक माना जाता है.पाश्चात्य ज्योतिषी भी उसे दुख देने वाला मानते हैं.लेकिन शनि उतना अशुभ और मारक नही है,जितना उसे माना जाता है.इसलिये वह शत्रु नही मित्र है.मोक्ष को देने वाला एक मात्र शनि ग्रह ही है.सत्य तो यह ही है कि शनि प्रकृति में संतुलन पैदा करता है,और हर प्राणी के साथ न्याय करता है.जो लोग अनुचित विषमता और अस्वाभाविक समता को आश्रय देते हैं,शनि केवल उन्ही को प्रताडित करता है.


पौराणिक संदर्भ:

शनि के सम्बन्ध मे हमे पुराणों में अनेक आख्यान मिलते हैं.माता के छल के कारण पिताने उसे शाप दिया.पिता अर्थात सूर्य ने कहा,"तू क्रूरतापूर्ण द्रिष्टि देखने वाला मंदगामी ग्रह हो जाये".यह भी आख्यान मिलता है कि शनि के प्रकोप से ही अपने राज्य को घोर दुर्भिक्ष से बचाने के लिये राजा दसरथ उनसे मुकाबला करने पहुंचे तो उनका पुरुषार्थ देख कर शनि ने उनसे वरदान मांगने के लिये कहा.राजा दसरथ ने विधिवत स्तुति कर उसे प्रसन्न किया.पद्म पुराण में इस प्रसंग का सविस्तार वर्णन है.ब्रह्मवैवर्त पुराण में शनि ने जगत जननी पार्वती को बताया है कि मैं सौ जन्मो तक जातक की करनी का फ़ल भुगतान करता हूँ.एक बार जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने शनि से पूंछा कि तुम क्यों जातकों को धन हानि करते हो,क्यों सभी तुम्हारे प्रभाव से प्रताडित रहते हैं,तो शनि महाराज ने उत्तर दिया,"मातेश्वरी,उसमे मेरा कोई दोष नही है,परमपिता परमात्मा ने मुझे तीनो लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है,इसलिये जो भी तीनो लोकों के अंदर अन्याय करता है,उसे दंड देना मेरा काम है".एक आख्यान और मिलता है,कि किस प्रकार से ऋषि अगस्त ने जब शनि देव से प्रार्थना की थी,तो उन्होने राक्षसों से उनको मुक्ति दिलवाई थी.जिस किसी ने भी अन्याय किया,उनको ही उन्होने दंड दिया,चाहे वह भगवान शिव की अर्धांगिनी सती रही हों,जिन्होने सीता का रूप रखने के बाद बाबा भोले नाथ से झूठ बोलकर अपनी सफ़ाई दी और परिणाम में उनको अपने ही पिता की यज्ञ में हवन कुंड मे जल कर मरने के लिये शनि देव ने विवश कर दिया,अथवा राजा हरिश्चन्द्र रहे हों,जिनके दान देने के अभिमान के कारण सप्तनीक बाजार मे बिकना पडा और,शमशान की रखवाली तक करनी पडी,या राजा नल और दमयन्ती को ही ले लीजिये,जिनके तुच्छ पापों की सजा के लिये उन्हे दर दर का होकर भटकना पडा,और भूनी हुई मछलियां तक पानी मै तैर कर भाग गईं,फ़िर साधारण मनुष्य के द्वारा जो भी मनसा,वाचा,कर्मणा,पाप कर दिया जाता है वह चाहे जाने मे किया जाय या अन्जाने में,उसे भुगतना तो पडेगा ही.
मत्स्य पुराण में महात्मा शनि देव का शरीर इन्द्र कांति की नीलमणि जैसी है,वे गिद्ध पर सवार है,हाथ मे धनुष बाण है एक हाथ से वर मुद्रा भी है,शनि देव का विकराल रूप भयावना भी है.शनि पापियों के लिये हमेशा ही संहारक हैं. पश्चिम के साहित्य मे भी अनेक आख्यान मिलते हैं,शनि देव के अनेक मन्दिर हैं,भारत में भी शनि देव के अनेक मन्दिर हैं,जैसे शिंगणापुर ,वृंदावन के कोकिला वन,ग्वालियर के शनिश्चराजी,दिल्ली तथा अनेक शहरों मे महाराज शनि के मन्दिर हैं.


प्रथम भाव मे शनि

शनि मन्द है और शनि ही ठंडक देने वाला है,सूर्य नाम उजाला तो शनि नाम अन्धेरा,पहले भाव मे अपना स्थान बनाने का कारण है कि शनि अपने गोचर की गति और अपनी दशा मे शोक पैदा करेगा,जीव के अन्दर शोक का दुख मिलते ही वह आगे पीछे सब कुछ भूल कर केवल अन्धेरे मे ही खोया रहता है.शनि जादू टोने का कारक तब बन जाता है,जब शनि पहले भाव मे अपनी गति देता है,पहला भाव ही औकात होती है,अन्धेरे मे जब औकात छुपने लगे,रोशनी से ही पहिचान होती है और जब औकात छुपी हुई हो तो शनि का स्याह अन्धेरा ही माना जा सकता है.अन्धेरे के कई रूप होते हैं,एक अन्धेरा वह होता है जिसके कारण कुछ भी दिखाई नही देता है,यह आंखों का अन्धेरा माना जाता है,एक अन्धेरा समझने का भी होता है,सामने कुछ होता है,और समझा कुछ जाता है,एक अन्धेरा बुराइयों का होता है,व्यक्ति या जीव की सभी अच्छाइयां बुराइयों के अन्दर छुपने का कारण भी शनि का दिया गया अन्धेरा ही माना जाता है,नाम का अन्धेरा भे होता है,किसी को पता ही नही होता है,कि कौन है और कहां से आया है,कौन माँ है और कौन बाप है,आदि के द्वारा किसी भी रूप मे छुपाव भी शनि के कारण ही माना जाता है,व्यक्ति चालाकी का पुतला बन जाता है प्रथम भाव के शनि के द्वारा.शनि अपने स्थान से प्रथम भाव के अन्दर स्थिति रख कर तीसरे भाव को देखता है,तीसरा भाव अपने से छोटे भाई बहिनो का भी होता है,अपनी अन्दरूनी ताकत का भी होता है,पराक्रम का भी होता है, जो कुछ भी हम दूसरों से कहते है,किसी भी साधन से,किसी भी तरह से शनि के कारण अपनी बात को संप्रेषित करने मे कठिनाई आती है,जो कहा जाता है वह सामने वाले को या तो समझ मे नही आता है,और आता भी है तो एक भयानक अन्धेरा होने के कारण वह कही गयी बात को न समझने के कारण कुछ का कुछ समझ लेता है,परिणाम के अन्दर फ़ल भी जो चाहिये वह नही मिलता है,अक्सर देखा जाता है कि जिसके प्रथम भाव मे शनि होता है,उसका जीवन साथी जोर जोर से बोलना चालू कर देता है,उसका कारण उसके द्वारा जोर जोर से बोलने की आदत नही,प्रथम भाव का शनि सुनने के अन्दर कमी कर देता है,और सामने वाले को जोर से बोलने पर ही या तो सुनायी देता है,या वह कुछ का कुछ समझ लेता है,इसी लिये जीवन साथी के साथ कुछ सुनने और कुछ समझने के कारण मानसिक ना समझी का परिणाम सम्बन्धों मे कडुवाहट घुल जाती है,और सम्बन्ध टूट जाते हैं.इसकी प्रथम भाव से दसवी नजर सीधी कर्म भाव पर पडती है,यही कर्म भाव ही पिता का भाव भी होता है.जातक को कर्म करने और कर्म को समझने मे काफ़ी कठिनाई का सामना करना पडता है,जब किसी प्रकार से कर्म को नही समझा जाता है तो जो भी किया जाता है वह कर्म न होकर एक भार स्वरूप ही समझा जाता है,यही बात पिता के प्रति मान ली जाती है,पिता के प्रति शनि अपनी सिफ़्त के अनुसार अंधेरा देता है,और उस अन्धेरे के कारण पिता ने पुत्र के प्रति क्या किया है,समझ नही होने के कारण पिता पुत्र में अनबन भी बनी रहती है,पुत्र का लगन या प्रथम भाव का शनि माता के चौथे भाव मे चला जाता है,और माता को जो काम नही करने चाहिये वे उसको करने पडते हैं,कठिन और एक सीमा मे रहकर माता के द्वारा काम करने के कारण उसका जीवन एक घेरे में बंधा सा रह जाता है,और वह अपनी शरीरी सिफ़्त को उस प्रकार से प्रयोग नही कर पाती है जिस प्रकार से एक साधारण आदमी अपनी जिन्दगी को जीना चाहता है

दूसरे भाव में शनि

दूसरा भाव भौतिक धन का भाव है,भौतिक धन से मतलब है,रुपया,पैसा,सोना,चान्दी,हीरा,मोती,जेवरात आदि,जब शनि देव दूसरे भाव मे होते है तो अपने ही परिवार वालो के प्रति अन्धेरा भी रखते है,अपने ही परिवार वालों से लडाई झगडा आदि करवा कर अपने को अपने ही परिवार से दूर कर देते हैं,धन के मामले मै पता नही चलता है कितना आया और कितना खर्च किया,कितना कहां से आया,दूसरा भाव ही बोलने का भाव है,जो भी बात की जाती है,उसका अन्दाज नही होता है कि क्या कहा गया है,गाली भी हो सकती है और ठंडी बात भी,ठंडी बात से मतलब है नकारात्मक बात,किसी भी बात को करने के लिये कहा जाय,उत्तर में न ही निकले.दूसरा शनि चौथे भाव को भी देखता है,चौथा भाव माता,मकान,और वाहन का भी होता है,अपने सुखों के प्रति भी चौथे भाव से पता किया जाता है,दूसरा शनि होने पर यात्रा वाले कार्य और घर मे सोने के अलावा और कुछ नही दिखाई देता है.दूसरा शनि सीधे रूप मे आठवें भाव को देखता है,आठवा भाव शमशानी ताकतों की तरफ़ रुझान बढा देता है,व्यक्ति भूत,प्रेत,जिन्न, और पिशाची शक्तियों को अपनाने में अपना मन लगा देता है,शमशानी साधना के कारण उसका खान पान भी शमशानी हो जाता है,शराब,कबाब और भूत के भोजन में उसकी रुचि बढ जाती है.दूसरा शनि ग्यारहवें भाव को भी देखता है,ग्यारहवां भाव अचल सम्पत्ति के प्रति अपनी आस्था को अन्धेरे मे रखता है,मित्रों और बडे भाई बहिनो के प्रति दिमाग में अन्धेरा रखता है.वे कुछ करना चाहते हैं लेकिन व्यक्ति के दिमाग में कुछ और ही समझ मे आता है.

तीसरे भाव में शनि

तीसरा भाव पराक्रम का है,व्यक्ति के साहस और हिम्मत का है,जहां भी व्यक्ति रहता है,उसके पडौसियों का है.इन सबके कारणों के अन्दर तीसरे भाव से शनि पंचम भाव को भी देखता है,जिनमे शिक्षा,संतान और तुरत आने वाले धनो को भी जाना जाता है,मित्रों की सहभागिता और भाभी का भाव भी पांचवा भाव माना जाता है,पिता की मृत्यु का और दादा के बडे भाई का भाव भी पांचवा है.इसके अलावा नवें भाव को भी तीसरा शनि आहत करता है,जिसमे धर्म,सामाजिक व्यव्हारिकता,पुराने रीति रिवाज और पारिवारिक चलन आदि का ज्ञान भी मिलता है,को तीसरा शनि आहत करता है.मकान और आराम करने वाले स्थानो के प्रति यह शनि अपनी अन्धेरे वाली नीति को प्रतिपादित करता है.ननिहाल खानदान को यह शनि प्रताडित करता है.

चौथे भाव मे शनि

चौथे भाव का मुख्य प्रभाव व्यक्ति के लिये काफ़ी कष्ट देने वाला होता है,माता,मन,मकान,और पानी वाले साधन,तथा शरीर का पानी इस शनि के प्रभाव से गंदला जाता है,आजीवन कष्टदेने वाला होने से पुराणो मे इस शनि वाले व्यक्ति का जीवन नर्क मय ही बताया जाता है.अगर यह शनि तुला,मकर,कुम्भ या मीन का होता है,तो इस के फ़ल में कष्टों मे कुछ कमी आ जाती है.

पंचम भाव का शनि

इस भाव मे शनि के होने के कारण व्यक्ति को मन्त्र वेत्ता बना देता है,वह कितने ही गूढ मन्त्रों के द्वारा लोगो का भला करने वाला तो बन जाता है,लेकिन अपने लिये जीवन साथी के प्रति,जायदाद के प्रति,और नगद धन के साथ जमा पूंजी के लिये दुख ही उठाया करता है.संतान मे शनि की सिफ़्त स्त्री होने और ठंडी होने के कारण से संतति मे विलंब होता है,कन्या संतान की अधिकता होती है,जीवन साथी के साथ मन मुटाव होने से वह अधिक तर अपने जीवन के प्रति उदासीन ही रहता है.

षष्ठ भाव में शनि

इस भाव मे शनि कितने ही दैहिक दैविक और भौतिक रोगों का दाता बन जाता है,लेकिन इस भाव का शनि पारिवारिक शत्रुता को समाप्त कर देता है,मामा खानदान को समाप्त करने वाला होता है,चाचा खान्दान से कभी बनती नही है.व्यक्ति अगर किसी प्रकार से नौकरी वाले कामों को करता रहता है तो सफ़ल होता रहता है,अगर किसी प्रकार से वह मालिकी वाले कामो को करता है तो वह असफ़ल हो जाता है.अपनी तीसरी नजर से आठवें भाव को देखने के कारण से व्यक्ति दूर द्रिष्टि से किसी भी काम या समस्या को नही समझ पाता है,कार्यों से किसी न किसी प्रकार से अपने प्रति जोखिम को नही समझ पाने से जो भी कमाता है,या जो भी किया जाता है,उसके प्रति अन्धेरा ही रहता है,और अक्स्मात समस्या आने से परेशान होकर जो भी पास मे होता है गंवा देता है.बारहवे भाव मे अन्धेरा होने के कारण से बाहरी आफ़तों के प्रति भी अन्जान रहता है,जो भी कारण बाहरी बनते हैं उनके द्वारा या तो ठगा जाता है या बाहरी लोगों की शनि वाली चालाकियों के कारण अपने को आहत ही पाता है.खुद के छोटे भाई बहिन क्या कर रहे हैं और उनकी कार्य प्रणाली खुद के प्रति क्या है उसके प्रति अन्जान रहता है.अक्सर इस भाव का शनि कही आने जाने पर रास्तों मे भटकाव भी देता है,और अक्सर ऐसे लोग जानी हुई जगह पर भी भूल जाते है.

सप्तम भाव मे शनि

सातवां भाव पत्नी और मन्त्रणा करने वाले लोगो से अपना सम्बन्ध रखता है.जीवन साथी के प्रति अन्धेरा और दिमाग मे नकारात्मक विचारो के लगातार बने रहने से व्यक्ति अपने को हमेशा हर बात में छुद्र ही समझता रहता है,जीवन साथी थोडे से समय के बाद ही [[नकारा] समझ कर अपना पल्ला जातक से झाड कर दूर होने लगता है,अगर जातक किसी प्रकार से अपने प्रति सकारात्मक विचार नही बना पाये तो अधिकतर मामलो मे गृह्स्थियों को बरबाद ही होता देखा गया है,और दो शादियों के परिणाम सप्तम शनि के कारण ही मिलते देखे गये हैं,सप्तम शनि पुरानी रिवाजों के प्रति और अपने पूर्वजों के प्रति उदासीन ही रहता है,उसे केवल अपने ही प्रति सोचते रहने के कारण और मै कुछ नही कर सकता हूँ,यह विचार बना रहने के कारण वह अपनी पुरानी मर्यादाओं को अक्सर भूल ही जाता है,पिता और पुत्र मे कार्य और अकार्य की स्थिति बनी रहने के कारण अनबन ही बनी रहती है.व्यक्ति अपने रहने वाले स्थान पर अपने कारण बनाकर अशांति उत्पन्न करता रहता है,अपनी माता या माता जैसी महिला के मन मे विरोध भी पैदा करता रहता है,उसे लगता है कि जो भे उसके प्रति किया जा रहा है,वह गलत ही किया जा रहा है और इसी कारण से वह अपने ही लोगों से विरोध पैदा करने मे नही हिचकता है.शरीर के पानी पर इस शनि का प्रभाव पडने से दिमागी विचार गंदे हो जाते हैं,व्यक्ति अपने शरीर में पेट और जनन अंगो मे सूजन और महिला जातकों की बच्चादानी आदि की बीमारियां इसी शनि के कारण से मिलती है.

अष्टम भाव में शनि

इस भाव का शनि खाने पीने और मौज मस्ती करने के चक्कर में जेब हमेशा खाली रखता है.किस काम को कब करना है इसका अन्दाज नही होने के कारण से व्यक्ति के अन्दर आवारागीरी का उदय होता देखा गया है.

नवम भाव का शनि

नवां भाव भाग्य का माना गया है,इस भाव में शनि होने के कारण से कठिन और दुख दायी यात्रायें करने को मिलती हैं,लगातार घूम कर सेल्स आदि के कामो मे काफ़ी परेशानी करनी पडती है,अगर यह भाव सही होता है, तो व्यक्ति मजाकिया होता है,और हर बात को चुटकुलों के द्वारा कहा करता है,मगर जब इस भाव मे शनि होता है तो व्यक्ति सीरियस हो जाता है,और एकान्त में अपने को रखने अपनी भलाई सोचता है,नवें भाव बाले शनि के के कारण व्यक्ति अपनी पहिचान एकान्त वासा झगडा न झासा वाली कहावत से पूर्ण रखता है.खेती वाले कामो,घर बनाने वाले कामों जायदाद से जुडे कामों की तरफ़ अपना मन लगाता है.अगर कोई अच्छा ग्रह इस शनि पर अपनी नजर रखता है तो व्यक्ति जज वाले कामो की तरफ़ और कोर्ट कचहरी वाले कामों की तरफ़ अपना रुझान रखता है.जानवरों की डाक्टरी और जानवरों को सिखाने वाले काम भी करता है,अधिकतर नवें शनि वाले लोगों को जानवर पालना बहुत अच्छा लगता है.किताबों को छापकर बेचने वाले भी नवें शनि से कही न कही जुडे होते हैं.

दसम भाव का शनि

दसवां शनि कठिन कामो की तरफ़ मन ले जाता है,जो भी मेहनत वाले काम,लकडी,पत्थर,लोहे आदि के होते हैंवे सब दसवे शनि के क्षेत्र मे आते हैं,व्यक्ति अपने जीवन मे काम के प्रति एक क्षेत्र बना लेता है और उस क्षेत्र से निकलना नही चाहता है.राहु का असर होने से या किसी भी प्रकार से मंगल का प्रभाव बन जाने से इस प्रकार का व्यक्ति यातायात का सिपाही बन जाता है,उसे जिन्दगी के कितने ही काम और कितने ही लोगों को बारी बारी से पास करना पडता है,दसवें शनि वाले की नजर बहुत ही तेज होती है वह किसी भी रखी चीज को नही भूलता है,मेहनत की कमाकर खाना जानता है,अपने रहने के लिये जब भी मकान आदि बनाता है तो केवल स्ट्रक्चर ही बनाकर खडा कर पाता है,उसके रहने के लिये कभी भी बढिया आलीशान मकान नही बन पाता है.गुरु सही तरीके से काम कर रहा हो तो व्यक्ति एक्ज्यूटिव इन्जीनियर की पोस्ट पर काम करने वाला बनजाता है.

ग्यारहवां शनि

शनि दवाइयों का कारक भी है,और इस घर मे जातक को साइंटिस्ट भी बना देता है,अगर जरा सी भी बुध साथ देता हो तो व्यक्ति गणित के फ़ार्मूले और नई खोज करने मे माहिर हो जाता है.चैरिटी वाले काम करने मे मन लगता है,मकान के स्ट्रक्चर खडा करने और वापस बिगाड कर बनाने मे माहिर होता है,व्यक्ति के पास जीवन मे दो मकान तो होते ही है.दोस्तों से हमेशा चालकियां ही मिलती है,बडा भाई या बहिन के प्रति व्यक्ति का रुझान कम ही होता है. कारण वह न तोकुछ शो करता है, और न ही किसी प्रकार की मदद करने मे अपनी योग्यता दिखाता है,अधिकतर लोगो के इस प्रकार के भाई या बहिन अपने को जातक से दूर ही रखने म अपनी भलाई समझते हैं.

बारहवां शनि

नवां घर भाग्य या धर्म का होता है तो बारहवा घर धर्म का घर होता है,व्यक्ति को बारहवा शनि पैदा करने के बाद अपने जन्म स्थान से दूर ही कर देता है,वह दूरी शनि के अंशों पर निर्भर करती है,व्यक्ति के दिमाग मे काफ़ी वजन हर समय महसूस होता है वह अपने को संसार के लिये वजन मानकर ही चलता है,उसकी रुझान हमेशा के लिये धन के प्रति होती है और जातक धन के लिये हमेशा ही भटकता रहता है,कर्जा दुश्मनी बीमारियो से उसे नफ़रत तो होती है मगर उसके जीवन साथी के द्वारा इस प्रकार के कार्य कर दिये जाते हैं जिनसे जातक को इन सब बातों के अन्दर जाना ही पडता है.

शनि की पहिचान

जातक को अपने जन्म दिनांक को देखना चाहिये,यदि शनि चौथे,छठे,आठवें,बारहवें भाव मे किसी भी राशि में विशेषकर नीच राशि में बैठा हो,तो निश्चित ही आर्थिक,मानसिक,भौतिक पीडायें अपनी महादशा,अन्तर्दशा,में देगा,इसमे कोई सन्देह नही है,समय से पहले यानि महादशा,अन्तर्दशा,आरम्भ होने से पहले शनि के बीज मंत्र का अवश्य जाप कर लेना चाहिये.ताकि शनि प्रताडित न कर सके,और शनि की महादशा और अन्तर्दशा का समय सुख से बीते.याद रखें अस्त शनि भयंकर पीडादायक माना जाता है,चाहे वह किसी भी भाव में क्यों न हो.

अंकशास्त्र में शनि

ज्योतिष विद्याओं मे अंक विद्या भी एक महत्व पूर्ण विद्या है,जिसके द्वारा हम थोडे समय में ही प्रश्न कर्ता का स्पष्ट उत्तर दे सकते हैं,अंक विद्या में ८ का अंक शनि को प्राप्त हुआ है.शनि परमतपस्वी और न्याय का कारक माना जाता है,इसकी विशेषता पुराणों में प्रतिपादित है.आपका जिस तारीख को जन्म हुआ है,गणना करिये,और योग अगर ८ आये,तो आपका अंकाधिपति शनिश्चर ही होगा.जैसे-८,१७,२६ तारीख आदि.यथा-१७=१+७=८,२६=२+६=८.

अंक आठ की ज्योतिषीय परिभाषा

अंक आठ वाले जातक धीरे धीरे उन्नति करते हैं,और उनको सफ़लता देर से ही मिल पाती है.परिश्रम बहुत करना पडता है,लेकिन जितना किया जाता है उतना मिल नही पाता है,जातक वकील और न्यायाधीश तक बन जाते हैं,और लोहा,पत्थर आदि के व्यवसाय के द्वारा जीविका भी चलाते हैं.दिमाग हमेशा अशान्त सा ही रहता है,और वह परिवार से भी अलग ही हो जाता है,साथ ही दाम्पत्य जीवन में भी कटुता आती है.अत: आठ अंक वाले व्यक्तियों को प्रथम शनि के विधिवत बीज मंत्र का जाप करना चाहिये.तदोपरान्त साढे पांच रत्ती का नीलम धारण करना चाहिये.ऐसा करने से जातक हर क्षेत्र में उन्नति करता हुआ,अपना लक्ष्य शीघ्र प्राप्त कर लेगा.और जीवन में तप भी कर सकेगा,जिसके फ़लस्वरूप जातक का इहलोक और परलोक सार्थक होंगे. शनि प्रधान जातक तपस्वी और परोपकारी होता है,वह न्यायवान,विचारवान,तथा विद्वान भी होता है,बुद्धि कुशाग्र होती है,शान्त स्वभाव होता है,और वह कठिन से कठिन परिस्थति में अपने को जिन्दा रख सकता है.जातक को लोहा से जुडे वयवसायों मे लाभ अधिक होता है.शनि प्रधान जातकों की अन्तर्भावना को कोई जल्दी पहिचान नही पाता है.जातक के अन्दर मानव परीक्षक के गुण विद्यमान होते हैं.शनि की सिफ़्त चालाकी,आलसी,धीरे धीरे काम करने वाला,शरीर में ठंडक अधिक होने से रोगी,आलसी होने के कारण बात बात मे तर्क करने वाला,और अपने को दंड से बचाने के लिये मधुर भाषी होता है.दाम्पत्यजीवन सामान्य होता है.अधिक परिश्रम करने के बाद भी धन और धान्य कम ही होता है.जातक न तो समय से सोते हैं और न ही समय से जागते हैं.हमेशा उनके दिमाग में चिन्ता घुसी रहती है.वे लोहा,स्टील,मशीनरी,ठेका,बीमा,पुराने वस्तुओं का व्यापार,या राज कार्यों के अन्दर अपनी कार्य करके अपनी जीविका चलाते हैं.शनि प्रधान जातक में कुछ कमिया होती हैं,जैसे वे नये कपडे पहिनेंगे तो जूते उनके पुराने होंगे,हर बात में शंका करने लगेंगे,अपनी आदत के अनुसार हठ बहुत करेंगे,अधिकतर जातकों के विचार पुराने होते हैं.उनके सामने जो भी परेशानी होती है सबके सामने उसे उजागर करने में उनको कोई शर्म नही आती है.शनि प्रधान जातक अक्सर अपने भाई और बान्धवों से अपने विचार विपरीत रखते हैं,धन का हमेशा उनके पास अभाव ही रहता है,रोग उनके शरीर में मानो हमेशा ही पनपते रहते हैं,आलसी होने के कारण भाग्य की गाडी आती है और चली जाती है उनको पहिचान ही नही होती है,जो भी धन पिता के द्वारा दिया जाता है वह अधिकतर मामलों में अपव्यय ही कर दिया जाता है.अपने मित्रों से विरोध रहता है.और अपनी माता के सुख से भी जातक अधिकतर वंचित ही रहता है.

शनि के प्रति अन्य जानकारियां

शनि को सन्तुलन और न्याय का ग्रह माना गया है.जो लोग अनुचित बातों के द्वारा अपनी चलाने की कोशिश करते हैं,जो बात समाज के हित में नही होती है और उसको मान्यता देने की कोशिश करते है,अहम के कारण अपनी ही बात को सबसे आगे रखते हैं,अनुचित विषमता,अथवा अस्वभाविक समता को आश्रय देते हैं,शनि उनको ही पीडित करता है.शनि हमसे कुपित न हो,उससे पहले ही हमे समझ लेना चाहिये,कि हम कहीं अन्याय तो नही कर रहे हैं,या अनावश्यक विषमता का साथ तो नही दे रहे हैं.यह तपकारक ग्रह है,अर्थात तप करने से शरीर परिपक्व होता है,शनि का रंग गहरा नीला होता है,शनि ग्रह से निरंतर गहरे नीले रंग की किरणें पृथ्वी पर गिरती रहती हैं.शरी में इस ग्रह का स्थान उदर और जंघाओं में है.सूर्य पुत्र शनि दुख दायक,शूद्र वर्ण,तामस प्रकृति,वात प्रकृति प्रधान तथा भाग्य हीन नीरस वस्तुओं पर अधिकार रखता है. शनि सीमा ग्रह कहलाता है,क्योंकि जहां पर सूर्य की सीमा समाप्त होती है,वहीं से शनि की सीमा शुरु हो जाती है.जगत में सच्चे और झूठे का भेद समझना,शनि का विशेष गुण है.यह ग्रह कष्टकारक तथा दुर्दैव लाने वाला है.विपत्ति,कष्ट,निर्धनता,देने के साथ साथ बहुत बडा गुरु तथा शिक्षक भी है,जब तक शनि की सीमा से प्राणी बाहर नही होता है,संसार में उन्नति सम्भव नही है.शनि जब तक जातक को पीडित करता है,तो चारों तरफ़ तबाही मचा देता है.जातक को कोई भी रास्ता चलने के लिये नही मिलता है.करोडपति को भी खाकपति बना देना इसकी सिफ़्त है. अच्छे और शुभ कर्मों बाले जातकों का उच्च होकर उनके भाग्य को बढाता है,जो भी धन या संपत्ति जातक कमाता है,उसे सदुपयोग मे लगाता है.गृहस्थ जीवन को सुचारु रूप से चलायेगा.साथ ही धर्म पर चलने की प्रेरणा देकर तपस्या और समाधि आदि की तरफ़ अग्रसर करता है.अगर कर्म निन्दनीय और क्रूर है,तो नीच का होकर भाग्य कितना ही जोडदार क्यों न हो हरण कर लेगा,महा कंगाली सामने लाकर खडी कर देगा,कंगाली देकर भी मरने भी नही देगा,शनि के विरोध मे जाते ही जातक का विवेक समाप्त हो जाता है.निर्णय लेने की शक्ति कम हो जाती है,प्रयास करने पर भी सभी कार्यों मे असफ़लता ही हाथ लगती है.स्वभाव मे चिडचिडापन आजाता है,नौकरी करने वालों का अधिकारियों और साथियों से झगडे,व्यापारियों को लम्बी आर्थिक हानि होने लगती है.विद्यार्थियों का पढने मे मन नही लगता है,बार बार अनुत्तीर्ण होने लगते हैं.जातक चाहने पर भी शुभ काम नही कर पाता है.दिमागी उन्माद के कारण उन कामों को कर बैठता है जिनसे करने के बाद केवल पछतावा ही हाथ लगता है.शरीर में वात रोग हो जाने के कारण शरीर फ़ूल जाता है,और हाथ पैर काम नही करते हैं,गुदा में मल के जमने से और जो खाया जाता है उसके सही रूप से नही पचने के कारण कडा मल बन जाने से गुदा मार्ग में मुलायम भाग में जख्म हो जाते हैं,और भगन्दर जैसे रोग पैदा हो जाते हैं.एकान्त वास रहने के कारण से सीलन और नमी के कारण गठिया जैसे रोग हो जाते हैं,हाथ पैर के जोडों मे वात की ठण्डक भर जाने से गांठों के रोग पैदा हो जाते हैं,शरीर के जोडों में सूजन आने से दर्द के मारे जातक को पग पग पर कठिनाई होती है.दिमागी सोचों के कारण लगातार नशों के खिंचाव के कारण स्नायु में दुर्बलता आजाती है.अधिक सोचने के कारण और घर परिवार के अन्दर क्लेश होने से विभिन्न प्रकार से नशे और मादक पदार्थ लेने की आदत पड जाती है,अधिकतर बीडी सिगरेट और तम्बाकू के सेवन से क्षय रोग हो जाता है,अधिकतर अधिक तामसी पदार्थ लेने से कैंसर जैसे रोग भी हो जाते हैं.पेट के अन्दर मल जमा रहने के कारण आंतों के अन्दर मल चिपक जाता है,और आंतो मे छाले होने से अल्सर जैसे रोग हो जाते हैं.शनि ऐसे रोगों को देकर जो दुष्ट कर्म जातक के द्वारा किये गये होते हैं,उन कर्मों का भुगतान करता है.जैसा जातक ने कर्म किया है उसका पूरा पूरा भुगतान करना ही शनिदेव का कार्य है. शनि की मणि नीलम है.प्राणी मात्र के शरीर में लोहे की मात्रा सब धातुओं से अधिक होती है,शरीर में लोहे की मात्रा कम होते ही उसका चलना फ़िरना दूभर हो जाता है.और शरीर में कितने ही रोग पैदा हो जाते हैं.इसलिये ही इसके लौह कम होने से पैदा हुए रोगों की औषधि खाने से भी फ़ायदा नही हो तो जातक को समझ लेना चाहिये कि शनि खराब चल रहा है.शनि मकर तथा कुम्भ राशि का स्वामी है.इसका उच्च तुला राशि में और नीच मेष राशि में अनुभव किया जाता है.इसकी धातु लोहा,अनाज चना,और दालों में उडद की दाल मानी जाती है.

भारत में तीन चमत्कारिक शनि सिद्ध पीठ

शनि के चमत्कारिक सिद्ध पीठों में तीन पीठ ही मुख्य माने जाते हैं,इन सिद्ध पीठों मे जाने और अपने किये गये पापॊं की क्षमा मागने से जो भी पाप होते हैं उनके अन्दर कमी आकर जातक को फ़ौरन लाभ मिलता है.जो लोग इन चमत्कारिक पीठों को कोरी कल्पना मानते हैं,उअन्के प्रति केवल इतना ही कहा जा सकता है,कि उनके पुराने पुण्य कर्मों के अनुसार जब तक उनका जीवन सुचारु रूप से चल रहा तभी तक ठीक कहा जा सकता है,भविष्य मे जब कठिनाई सामने आयेगी,तो वे भी इन सिद्ध पीठों के लिये ढूंढते फ़िरेंगे,और उनको भी याद आयेगा कि कभी किसी के प्रति मखौल किया था.अगर इन सिद्ध पीठों के प्रति मान्यता नही होती तो आज से साढे तीन हजार साल पहले से कितने ही उन लोगों की तरह बुद्धिमान लोगों ने जन्म लिया होगा,और अपनी अपनी करते करते मर गये होंगे.लेकिन वे पीठ आज भी ज्यों के त्यों है और लोगों की मान्यता आज भी वैसी की वैसी ही है.

महाराष्ट्र का शिंगणापुर गांव का सिद्ध पीठ
मुख्य लेख: शनि मंदिर, शिंग्लापुर
शिंगणापुर गांव मे शनिदेव का अद्भुत चमत्कार है.इस गांव में आज तक किसी ने अपने घर में ताला नही लगाया,इसी बात से अन्दाज लगाया जा सकता है कि कितनी महानता इस सिद्ध पीठ में है.आज तक के इतिहास में किसी चोर ने आकर इस गांव में चोरी नही की,अगर किसी ने प्रयास भी किया है तो वह फ़ौरन ही पीडित हो गया.दर्शन,पूजा,तेल स्नान,शनिदेव को करवाने से तुरन्त शनि पीडाओं में कमी आजाती है,लेकिन वह ही यहां पहुंचता है,जिसके ऊपर शनिदेव की कृपा हो गयी होती है.

मध्यप्रदेश के ग्वालियर के पास शनिश्चरा मन्दिर
महावीर हनुमानजी के द्वारा लंका से फ़ेंका हुआ अलौकिक शनिदेव का पिण्ड है,शनिशचरी अमावश्या को यहां मेला लगता है.और जातक शनि देव पर तेल चढाकर उनसे गले मिलते हैं.साथ ही पहने हुये कपडे जूते आदि वहीं पर छोड कर समस्त दरिद्रता को त्याग कर और क्लेशों को छोड कर अपने अपने घरों को चले जाते हैं.इस पीठ की पूजा करने पर भी तुरन्त फ़ल मिलता है.

उत्तर प्रदेश के कोशी के पास कौकिला वन में सिद्ध शनि देव का मन्दिर
लोगों की हंसी करने की आदत है.रामायण के पुष्पक विमान की बात सुन कर लोग जो नही समझते थे,वे हंसी किया करते थे,जब तक स्वयं रामेश्वरम के दर्शन नही करें, तब तक पत्थर भी पानी में तैर सकते हैं,विश्वास ही नही होता ,लेकिन जब रामकुन्ड के पास जाकर उस पत्थर के दर्शन किये और साक्षात रूप से पानी में तैरता हुआ पाया तो सिवाय नमस्कार करने के और कुछ समझ में नही आया. जब भगवान श्री कृष्ण का बंशी बजाता हुआ एक पैर से खडा हुआ रूप देखा तो समझ में आया कि विद्वानों ने शनि देव के बीज मंत्र में जो (शं) बीज का अच्छर चुना है,वह अगर रेखांकित रूप से सजा दिया जाये तो वह और कोई नही स्वयं शनिदेव के रूप मे भगवान श्री कृष्ण ही माने जायेंगे.यह सिद्ध पीठ कोसी से छ: किलोमीटर दूर और नन्द गांव से सटा हुआ कोकिला वन है,इस वन में द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण जो सोलह कला सम्पूर्ण ईश्वर हैं,ने शनि को कहावतों और पुराणों की कथाओं के अनुसार दर्शन दिया,और आशीर्वाद भी दिया कि यह वन उनका है,और जो इस वन की परिक्रमा करेगा,और शनिदेव की पूजा अर्चना करेगा,वह मेरी कृपा की तरह से ही शनिदेव की कृपा प्राप्त कर सकेगा.और जो भी जातक इस शनि सिद्ध पीठ के प्रति दर्शन,पूजा पाठ का अन्तर्मुखी होकर सद्भावना से विश्वास करेगा,वह भी शनि के किसी भी उपद्रव से ग्रस्त नही होगा.यहां पर शनिवार को मेला लगता है.जातक अपने अपने श्रद्धानुसार कोई दंडवत परिक्रमा करता है,या कोई पैदल परिक्रमा करता है,जो लोग शनि देव का राजा दसरथ कृत स्तोत्र का पाथ करते हुए,या शनि के बीज मंत्र का जाप करते हुये परिक्रमा करते हैं,उनको अच्छे फ़लों की शीघ्र प्राप्ति हो जाती है.

शनि की साढे साती

ज्योतिष के अनुसार शनि की साढेसाती की मान्यतायें तीन प्रकार से होती हैं,पहली लगन से दूसरी चन्द्र लगन या राशि से और तीसरी सूर्य लगन से,उत्तर भारत में चन्द्र लगन से शनि की साढे साती की गणना का विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है.इस मान्यता के अनुसार जब शनिदेव चन्द्र राशि पर गोचर से अपना भ्रमण करते हैं तो साढेसाती मानी जाती है,इसका प्रभाव राशि में आने के तीस माह पहले से और तीस माह बाद तक अनुभव होता है.साढेसाती के दौरान शनि जातक के पिअले किये गये कर्मों का हिसाब उसी प्रकार से लेता है,जैसे एक घर के नौकर को पूरी जिम्मेदारी देने के बाद मालिक कुछ समय बाद हिसाब मांगता है,और हिसाब में भूल होने पर या गल्ती करने पर जिस प्रकार से सजा नौकर को दी जाती है उसी प्रकार से सजा शनि देव भी हर प्राणी को देते हैं.और यही नही जिन लोगों ने अच्छे कर्म किये होते हैं तो उनको साढेशाती पुरस्कार भी प्रदान करती है,जैसे नगर या ग्राम का या शहर का मुखिया बना दिया जाना आदि.शनि की साढेसाती के आख्यान अनेक लोगों के प्राप्त होते हैं,जैसे राजा विक्रमादित्य,राजा नल,राजा हरिश्चन्द्र,शनि की साढेसाती संत महात्माओं को भी प्रताडित करती है,जो जोग के साथ भोग को अपनाने लगते हैं.हर मनुष्य को तीस साल मे एक बार साढेसाती अवश्य आती है,यदि यह साढे साती धनु,मीन,मकर,कुम्भ राशि मे होती है,तो कम पीडाजनक होती है,यदि यह साढेसाती चौथे,छठे,आठवें,और बारहवें भाव में होगी,तो जातक को अवश्य दुखी करेगी,और तीनो सुख शारीरिक,मानसिक,और आर्थिक को हरण करेगी.इन साढेसातियों में कभी भूलकर भी "नीलम" नही धारण करना चाहिये,यदि किया गया तो वजाय लाभ के हानि होने की पूरी सम्भावना होती है.कोई नया काम,नया उद्योग,भूल कर भी साढेसाती में नही करना चाहिये,किसी भी काम को करने से पहले किसी जानकार ज्योतिषी से जानकारी अवश्य कर लेनी चाहिये.यहां तक कि वाहन को भी भूलकर इस समय में नही खरीदना चाहिये,अन्यथा वह वाहन सुख का वाहन न होकर दुखों का वाहन हो जायेगा.हमने अपने पिछले पच्चीस साल के अनुभव मे देखा है कि साढेसाती में कितने ही उद्योगपतियों का बुरा हाल हो गया,और जो करोडपति थे,वे रोडपति होकर एक गमछे में घूमने लगे.इस प्रकार से यह भी नौभव किया कि शनि जब भी चार,छ:,आठ,बारह मे विचरण करेगा,तो उसका मूल धन तो नष्त होगा ही,कितना ही जतन क्यों न किया जाये.और शनि के इस समय का विचार पहले से कर लिया गया है तो धन की रक्षा हो जाती है.यदि सावधानी नही बरती गई तो मात्र पछतावा ही रह जाता है.अत: प्रत्येक मनुष्य को इस समय का शनि आरम्भ होने के पहले ही जप तप और जो विधान हम आगे बातायेंगे उनको कर लेना चाहिये

शनि परमकल्याण की तरफ़ भेजता है

शनिदेव परमकल्याण कर्ता न्यायाधीश और जीव का परमहितैषी ग्रह माना जाता है.ईश्वर पारायण प्राणी जो जन्म जन्मान्तर तपस्या करते हैं,तपस्या सफ़ल होने के समय अविद्या,माया से सम्मोहित होकर पतित हो जाते हैं,अर्थात तप पूर्ण नही कर पाते हैं,उन तपस्विओं की तपस्या को सफ़ल करने के लिये शनिदेव परम कृपालु होकर भावी जन्मों में पुन: तप करने की प्रेरणा देता है. द्रेष्काण कुन्डली मे जब शनि को चन्द्रमा देखता है,या चन्द्रमा शनि के द्वारा देखा जाता है,तो उच्च कोटि का संत बना देता है.और ऐसा व्यक्ति पारिवारिक मोह से विरक्त होकर कर महान संत बना कर बैराग्य देता है.शनि पूर्व जन्म के तप को पूर्ण करने के लिये प्राणी की समस्त मनोवृत्तियों को परमात्मा में लगाने के लिये मनुष्य को अन्त रहित भाव देकर उच्च स्तरीय महात्मा बना देता है.ताकि वर्तमान जन्म में उसकी तपस्या सफ़ल हो जावे,और वह परमानन्द का आनन्द लेकर प्रभु दर्शन का सौभाग्य प्राप्त कर सके.यह चन्द्रमा और शनि की उपासना से सुलभ हो पाता है.शनि तप करने की प्रेरणा देता है.और शनि उसके मन को परमात्मा में स्थित करता है.कारण शनि ही नवग्रहों में जातक के ज्ञान चक्षु खोलता है.

  • ज्ञान चक्षुर्नमस्तेअस्तु कश्यपात्मज सूनवे.तुष्टो ददासि बैराज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात.
  • तप से संभव को भी असंभव किया जा सकता है.ज्ञान,धन,कीर्ति,नेत्रबल,मनोबल,स्वर्ग मुक्ति,सुख शान्ति,यह सब कुच तप की अग्नि में पकाने के बाद ही सुलभ हो पाता है.जब तक अग्नि जलती है,तब तक उसमें उष्मा अर्थात गर्मी बनी रहती है.मनुष्य मात्र को जीवन के अंत तक अपनी शक्ति को स्थिर रखना चाहिये.जीवन में शिथिलता आना असफ़लता है.सफ़लता हेतु गतिशीलता आवश्यक है,अत: जीवन में तप करते रहना चाहिये.मनुष्य जीवन में सुख शान्ति और समृद्धि की वृद्धि तथा जीवन के अन्दर आये क्लेश,दुख,भय,कलह,द्वेष,आदि से त्राण पाने के लिये दान,मंत्रों का जाप,तप,उपासना आदि बहुत ही आवश्यक है.इस कारण जातक चाहे वह सिद्ध क्यों न हो ग्रह चाल को देख कर दान,जप,आदि द्वारा ग्रहों का अनुग्रह प्राप्त कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति करे.अर्थात ग्रहों का शोध अवश्य करे.
  • जिस पर ग्रह परमकृपालु होता है,उसको भी इसी तरह से तपाता है.पदम पुराण में राजा दसरथ ने कहा है,शनि ने तप करने के लिये जातक को जंगल में पहुंचा दिया.यदि वह तप में ही रत रहता है,माया के लपेट में नहीं आता है,तप छोड कर अन्य कार्य नही करता है,तो उसके तप को शनि पूर्ण कर देता है,और इसी जन्म में ही परमात्मा के दर्शन भी करा देता है.यदि तप न करके और कुछ ही करने लगे यथा आये थे हरि भजन कों,ओटन लगे कपास,माया के वशीभूत होकर कुच और ही करने लगे,तो शनिदेव उन पर कुपित हो जाते हैं.
  • विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत.इस त्रिगुण्मयी माया को जीतने हेतु तथा कंचन एव्म कामिनी के परित्याग हेतु आत्माओं को बारह चौदह घंटे नित्य प्रति उपासना,आराधना और प्रभु चिन्तन करना चाहिये.अपने ही अन्त:करण से पूम्छना चाहिये,कि जिसके लिये हमने संसार का त्याग किया,संकल्प करके चले,कि हम तुम्हें ध्यायेंगे,फ़िर भजन क्यों नही हो रहा है.यदि चित्त को एकाग्र करके शान्ति पूर्वक अपने मन से ही प्रश्न करेंगे,तो निश्चित ही उत्तर मिलेगा,मन को एकाग्र कर भजन पूजन में मन लगाने से एवं जप द्वारा इच्छित फ़ल प्राप्त करने का उपाय है.जातक को नवग्रहों के नौ करोड मंत्रों का सर्व प्रथम जाप कर ले या करवा ले.

काशी में शनिदेव ने तपस्या करने के बाद ग्रहत्व प्राप्त किया था

स्कन्द पुराण में काशी खण्ड में वृतांत आता है,कि छाया सुत श्री शनिदेव ने अपने पिता भगवान सूर्य देव से प्रश्न किया कि हे पिता! मै ऐसा पद प्राप्त करना चाहता हूँ,जिसे आज तक किसी ने प्राप्त नही किया,हे पिता ! आपके मंडल से मेरा मंडल सात गुना बडा हो,मुझे आपसे अधिक सात गुना शक्ति प्राप्त हो,मेरे वेग का कोई सामना नही कर पाये,चाहे वह देव,असुर,दानव,या सिद्ध साधक ही क्यों न हो.आपके लोक से मेरा लोक सात गुना ऊंचा रहे.दूसरा वरदान मैं यह प्राप्त करना चाहता हूँ,कि मुझे मेरे आराध्य देव भगवान श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन हों,तथा मै भक्ति ज्ञान और विज्ञान से पूर्ण हो सकूं.शनिदेव की यह बात सुन कर भगवान सूर्य प्रसन्न तथा गदगद हुए,और कह,बेटा ! मै भी यही चाहता हूँ,के तू मेरे से सात गुना अधिक शक्ति वाला हो.मै भी तेरे प्रभाव को सहन नही कर सकूं,इसके लिये तुझे तप करना होगा,तप करने के लिये तू काशी चला जा,वहां जाकर भगवान शंकर का घनघोर तप कर,और शिवलिंग की स्थापना कर,तथा भगवान शंकर से मनवांछित फ़लों की प्राप्ति कर ले.शनि देव ने पिता की आज्ञानुसार वैसा ही किया,और तप करने के बाद भगवान शंकर के वर्तमान में भी स्थित शिवलिंग की स्थापना की,जो आज भी काशी-विश्वनाथ के नाम से जाना जाता है,और कर्म के कारक शनि ने अपने मनोवांछित फ़लों की प्राप्ति भगवान शंकर से की,और ग्रहों में सर्वोपरि पद प्राप्त किया.

शनि मंत्र

शनि ग्रह की पीडा से निवारण के लिये पाठ,पूजा,स्तोत्र,मंत्र, और गायत्री आदि को लिख रहा हूँ,जो काफ़ी लाभकारी सिद्ध होंगे.नित्य १०८ पाथ करने से चमत्कारी लाभ प्राप्त होगा.

  • विनियोग:-शन्नो देवीति मंत्रस्य सिन्धुद्वीप ऋषि: गायत्री छंद:,आपो देवता,शनि प्रीत्यर्थे जपे विनियोग:.
  • नीचे लिखे गये कोष्ठकों के अन्गों को उंगलियों से छुयें.
  • अथ देहान्गन्यास:-शन्नो शिरसि (सिर),देवी: ललाटे (माथा).अभिषटय मुखे (मुख),आपो कण्ठे (कण्ठ),भवन्तु ह्रदये (ह्रदय),पीतये नाभौ (नाभि),शं कट्याम (कमर),यो: ऊर्वो: (छाती),अभि जान्वो: (घुटने),स्त्रवन्तु गुल्फ़यो: (गुल्फ़),न: पादयो: (पैर).
  • अथ करन्यास:-शन्नो देवी: अंगुष्ठाभ्याम नम:.अभिष्टये तर्ज्जनीभ्याम नम:.आपो भवन्तु मध्यमाभ्याम नम:.पीतये अनामिकाभ्याम नम:.शंय्योरभि कनिष्ठिकाभ्याम नम:.स्त्रवन्तु न: करतलकरपृष्ठाभ्याम नम:.
  • अथ ह्रदयादिन्यास:-शन्नो देवी ह्रदयाय नम:.अभिष्टये शिरसे स्वाहा.आपो भवन्तु शिखायै वषट.पीतये कवचाय हुँ.(दोनो कन्धे).शंय्योरभि नेत्रत्राय वौषट.स्त्रवन्तु न: अस्त्राय फ़ट.
  • ध्यानम:-नीलाम्बर: शूलधर: किरीटी गृद्ध्स्थितस्त्रासकरो धनुश्मान.चतुर्भुज: सूर्यसुत: प्रशान्त: सदाअस्तु मह्यं वरदोअल्पगामी..
  • शनि गायत्री:-औम कृष्णांगाय विद्य्महे रविपुत्राय धीमहि तन्न: सौरि: प्रचोदयात.
  • वेद मंत्र:- औम प्राँ प्रीँ प्रौँ स: भूर्भुव: स्व: औम शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शंय्योरभिस्त्रवन्तु न:.औम स्व: भुव: भू: प्रौं प्रीं प्रां औम शनिश्चराय नम:.
  • जप मंत्र :- ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनिश्चराय नम: । नित्य २३००० जाप प्रतिदिन.

शनि स्तोत्रम

  • नम: कृष्णाय नीलाय शिति कण्ठ निभाय च.
  • नम: कालाग्नि रूपाय, कृत-अन्ताय च वै नम:..
  • नम: निर्मांस देहाय दीर्घ श्म्श्रु जटाय च.
  • नम: विशाल नेत्राय शुष्क उदर भायाकृते..
  • नम: पुष्कल गात्राय स्थूल रोम्णे अथ वै नम:.
  • नम: दीर्घाय शुष्काय काल्द्रंष्ट नम: अस्तु ते..
  • नमस्ते कोटरक्षाय ,दुर्निरीक्ष्याय वै नम:.
  • नम: घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने..
  • नमस्ते सर्वभक्षाय वलीमुख नम: अस्तु ते.
  • सूर्य पुत्र नमस्ते अस्तु भास्करे अभयदाय च..
  • अधो द्रष्टे ! नमस्ते अस्तु संवर्तक नम: अस्तु ते.
  • नमो मन्द गते तुभ्यम नि: त्रिंशाय नम: अस्तु ते..
  • तपसा दग्ध देहाय नित्यं योग रताय च.
  • नम: नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम:..
  • ज्ञान चक्षु: नमस्ते अस्तु कश्यप आत्मज सूनवे.
  • तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत क्षणात..
  • देवासुर मनुष्या: च सिद्ध विद्याधरो-रगा:.
  • त्वया विलोकिता: सर्वै नाशम यान्ति समूलत:.
  • प्रसादं कुरु मे देव वराहो-अहम-उपागत:.
  • एवम स्तुत: तदा सौरि: ग्रहराज: महाबल:..
  • पदमपुराणानुसार यह महाराजा दसरथकृत सिद्ध स्तोत्र है.इसका नित्य १०८ पाठ करने से शनि
  • सम्बन्धी सभी पीडायें समाप्त हो जाती हैं.तथा पाठ कर्ता धन धान्य समृद्धि वैभव से पूर्ण हो जाता है.और उसके सभी बिगडे कार्य बनने लगते है.यह सौ प्रतिशत अनुभूत है

शनि सम्बन्धी रोग

  • उन्माद नाम का रोग शनि की देन है,जब दिमाग में सोचने विचारने की शक्ति का नाश हो जाता है,जो व्यक्ति करता जा रहा है,उसे ही करता चला जाता है,उसे यह पता नही है कि वह जो कर रहा है,उससे उसके साथ परिवार वालों के प्रति बुरा हो रहा है,या भला हो रहा है,संसार के लोगों के प्रति उसके क्या कर्तव्य हैं,उसे पता नही होता,सभी को एक लकडी से हांकने वाली बात उसके जीवन में मिलती है,वह क्या खा रहा है,उसका उसे पता नही है कि खाने के बाद क्या होगा,जानवरों को मारना,मानव वध करने में नही हिचकना,शराब और मांस का लगातार प्रयोग करना,जहां भी रहना आतंक मचाये रहना,जो भी सगे सम्बन्धी हैं,उनके प्रति हमेशा चिन्ता देते रहना आदि उन्माद नाम के रोग के लक्षण है.
  • वात रोग का अर्थ है वायु वाले रोग,जो लोग बिना कुछ अच्छा खाये पिये फ़ूलते चले जाते है,शरीर में वायु कुपित हो जाती है,उठना बैठना दूभर हो जाता है,शनि यह रोग देकर जातक को एक जगह पटक देता है,यह रोग लगातार सट्टा,जुआ,लाटरी,घुडदौड और अन्य तुरत पैसा बनाने वाले कामों को करने वाले लोगों मे अधिक देखा जाता है.किसी भी इस तरह के काम करते वक्त व्यक्ति लम्बी सांस खींचता है,उस लम्बी सांस के अन्दर जो हारने या जीतने की चाहत रखने पर ठंडी वायु होती है वह शरीर के अन्दर ही रुक जाती है,और अंगों के अन्दर भरती रहती है.अनितिक काम करने वालों और अनाचार काम करने वालों के प्रति भी इस तरह के लक्षण देखे गये है.
  • भगन्दर रोग गुदा मे घाव या न जाने वाले फ़ोडे के रूप में होता है.अधिक चिन्ता करने से यह रोग अधिक मात्रा में होता देखा गया है.चिन्ता करने से जो भी खाया जाता है,वह आंतों में जमा होता रहता है,पचता नही है,और चिन्ता करने से उवासी लगातार छोडने से शरीर में पानी की मात्रा कम हो जाती है,मल गांठों के रूप मे आमाशय से बाहर कडा होकर गुदा मार्ग से जब बाहर निकलता है तो लौह पिण्ड की भांति गुदा के छेद की मुलायम दीवाल को फ़ाडता हुआ निकलता है,लगातार मल का इसी तरह से निकलने पर पहले से पैदा हुए घाव ठीक नही हो पाते हैं,और इतना अधिक संक्रमण हो जाता है,कि किसी प्रकार की एन्टीबायटिक काम नही कर पाती है.
  • गठिया रोग शनि की ही देन है.शीलन भरे स्थानों का निवास,चोरी और डकैती आदि करने वाले लोग अधिकतर इसी तरह का स्थान चुनते है,चिन्ताओं के कारण एकान्त बन्द जगह पर पडे रहना,अनैतिक रूप से संभोग करना,कृत्रिम रूप से हवा में अपने वीर्य को स्खलित करना,हस्त मैथुन,गुदा मैथुन,कृत्रिम साधनो से उंगली और लकडी,प्लास्टिक,आदि से यौनि को लगातार खुजलाते रहना,शरीर में जितने भी जोड हैं,रज या वीर्य स्खलित होने के समय वे भयंकर रूप से उत्तेजित हो जाते हैं.और हवा को अपने अन्दर सोख कर जोडों के अन्दर मैद नामक तत्व को खत्म कर देते हैं,हड्डी के अन्दर जो सबल तत्व होता है,जिसे शरीर का तेज भी कहते हैं,धीरे धीरे खत्म हो जाता है,और जातक के जोडों के अन्दर सूजन पैदा होने के बाद जातक को उठने बैठने और रोज के कामों को करने में भयंकर परेशानी उठानी पडती है,इस रोग को देकर शनि जातक को अपने द्वारा किये गये अधिक वासना के दुष्परिणामों की सजा को भुगतवाता है.
  • स्नायु रोग के कारण शरीर की नशें पूरी तरह से अपना काम नही कर पाती हैं,गले के पीछे से दाहिनी तरफ़ से दिमाग को लगातार धोने के लिये शरीर पानी भेजता है,और बायीं तरफ़ से वह गन्दा पानी शरीर के अन्दर साफ़ होने के लिये जाता है,इस दिमागी सफ़ाई वाले पानी के अन्दर अवरोध होने के कारण दिमाग की गन्दगी साफ़ नही हो पाती है,और व्यक्ति जैसा दिमागी पानी है,उसी तरह से अपने मन को सोचने मे लगा लेता है,इस कारण से जातक में दिमागी दुर्बलता आ जाती है,वह आंखों के अन्दर कमजोरी महसूस करता है,सिर की पीडा,किसी भी बात का विचार करते ही मूर्छा आजाना मिर्गी,हिस्टीरिया,उत्तेजना,भूत का खेलने लग जाना आदि इसी कारण से ही पैदा होता है.इस रोग का कारक भी शनि है,अगर लगातार शनि के बीज मंत्र का जाप जातक से करवाया जाय,और उडद जो शनि का अनाज है,की दाल का प्रयोग करवाया जाय,रोटी मे चने का प्रयोग किया जाय,लोहे के बर्तन में खाना खाया जाये,तो इस रोग से मुक्ति मिल जाती है.
  • इन रोगों के अलावा पेट के रोग,जंघाओं के रोग,टीबी,कैंसर आदि रोग भी शनि की देन है.

शनि के रत्न और उपरत्न

नीलम,नीलिमा,नीलमणि,जामुनिया,नीला कटेला,आदि शनि के रत्न और उपरत्न हैं.अच्छा रत्न शनिवार को पुष्य नक्षत्र में धारण करना चाहिये.इन रत्नों मे किसी भी रत्न को धारण करते ही चालीस प्रतिशत तक फ़ायदा मिल जाता है.

शनि की जडी बूटियां

बिच्छू बूटी की जड या शमी जिसे छोंकरा भी कहते है की जड शनिवार को पुष्य नक्षत्र में काले धागे में पुरुष और स्त्री दोनो ही दाहिने हाथ की भुजा में बान्धने से शनि के कुप्रभावों में कमी आना शुरु हो जाता है.

शनि सम्बन्धी व्यापार और नौकरी

काले रंग की वस्तुयें,लोहा, ऊन, तेल, गैस, कोयला, कार्बन से बनी वस्तुयें, चमडा, मशीनों के पार्ट्स, पेट्रोल, पत्थर, तिल और रंग का व्यापार शनि से जुडे जातकों को फ़ायदा देने वाला होता है.चपरासी की नौकरी, ड्राइवर,समाज कल्याण की नौकरी नगर पालिका वाले काम, जज,वकील, राजदूत आदि वाले पद शनि की नौकरी मे आते हैं.

शनि सम्बन्धी दान पुण्य

पुष्य,अनुराधा,और उत्तराभाद्रपद नक्षत्रों के समय में शनि पीडा के निमित्त स्वयं के वजन के बराबर के चने,काले कपडे,जामुन के फ़ल,काले उडद,काली गाय,गोमेद,काले जूते,तिल,भैंस,लोहा,तेल,नीलम,कुलथी,काले फ़ूल,कस्तूरी सोना आदि दान की वस्तुओं शनि के निमित्त दान की जाती हैं.

शनि सम्बन्धी वस्तुओं की दानोपचार विधि

जो जातक शनि से सम्बन्धित दान करना चाहता हो वह उपरोक्त लिखे नक्षत्रों को भली भांति देख कर,और समझ कर अथवा किसी समझदार ज्योतिषी से पूंछ कर ही दान को करे.शनि वाले नक्शत्र के दिन किसी योग्य ब्राहमण को अपने घर पर बुलाये.चरण पखारकर आसन दे,और सुरुचि पूर्ण भोजन करावे,और भोजन के बाद जैसी भी श्रद्धा हो दक्षिणा दे.फ़िर ब्राहमण के दाहिने हाथ में मौली (कलावा) बांधे,तिलक लगावे.जिसे दान देना है,वह अपने हाथ में दान देने वाली वस्तुयें लेवे,जैसे अनाज का दान करना है,तो कुछ दाने उस अनाज के हाथ में लेकर कुछ चावल,फ़ूल,मुद्रा लेकर ब्राहमण से संकल्प पढावे,और कहे कि शनि ग्रह की पीडा के निवार्णार्थ ग्रह कृपा पूर्ण रूपेण प्राप्तयर्थम अहम तुला दानम ब्राहमण का नाम ले और गोत्र का नाम बुलवाये,अनाज या दान सामग्री के ऊपर अपना हाथ तीन बार घुमाकर अथवा अपने ऊपर तीन बार घुमाकर ब्राहमण का हाथ दान सामग्री के ऊपर रखवाकर ब्राहमण के हाथ में समस्त सामग्री छोड देनी चाहिये.इसके बाद ब्राहमण को दक्षिणा सादर विदा करे.जब ग्रह चारों तरफ़ से जातक को घेर ले,कोई उपाय न सूझे,कोई मदद करने के लिये सामने न आये,मंत्र जाप करने की इच्छायें भी समाप्त हो गयीं हों,तो उस समय दान करने से राहत मिलनी आरम्भ हो जाती है.सबसे बडा लाभ यह होता है,कि जातक के अन्दर भगवान भक्ति की भावना का उदय होना चालू हो जाता है और वह मंत्र आदि का जाप चालू कर देता है.जो भी ग्रह प्रतिकूल होते हैं वे अनुकूल होने लगते हैं.जातक की स्थिति में सुधार चालू हो जाता है.और फ़िर से नया जीवन जीने की चाहत पनपने लगती है.और जो शक्तियां चली गयीं होती हैं वे वापस आकर सहायता करने लगती है.

शनि ग्रह के द्वारा परेशान करने का कारण

दिमाग मे कई बार विचार आते हैं कि शनि के पास केवल परेशान करने के ही काम हैं,क्या शनि देव के और कोई काम नही हैं जो जातक को बिना किसी बात के चलती हुई जिन्दगी में परेशानी दे देते हैं,क्या शनि से केवल हमी से शत्रुता है,जो कितने ही उल्टे सीधे काम करते हैं,और दिन रात गलत काम में लगे रहते हैं,वे हमसे सुखी होते हैं,आखिर इन सबका कारण क्या है.इन सब भ्रान्तियों के उत्तर प्राप्त करने के प्रति जब समाजिक,धार्मिक,राजनैतिक,आर्थिक,और समाज से जुडे सभी प्रकार के ग्रन्थों को खोजा तो जो मिला वह आश्चर्यचकित कर देने वाला तथ्य था.आज के ही नही पुराने जमाने से ही देखा और सुना गया है जो भी इतिहास मिलता है उसके अनुसार जीव को संसार में अपने द्वारा ही मोक्ष के लिये भेजा जाता है.प्रकृति का काम संतुलन करना है,संतुलन में जब बाधा आती है,तो वही संतुलन ही परेशानी का कारण बन जाता है.लगातार आबादी के बढने से और जीविका के साधनों का अभाव पैदा होने से प्रत्येक मानव लगातार भागता जा रहा है,भागने के लिये पहले पैदल व्यवस्था थी,मगर जिस प्रकार से भागम भाग जीवन में प्रतिस्पर्धा बढी विज्ञान की उन्नति के कारण तेज दौडने वाले साधनों का विस्तार हुआ,जो दूरी पहले सालों में तय की जाती थी,वह अब मिनटों में तय होने लगी,यह सब केवल भौतिक सुखों के प्रति ही हो रहा है,जिसे देखो अपने भौतिक सुख के लिये भागता जा रहा है.किसी को किसी प्रकार से दूसरे की चिन्ता नही है,केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये किसी प्रकार से कोई यह नही देख रहा है कि उसके द्वारा किये जाने वाले किसी भी काम के द्वारा किसी का अहित भी हो सकता है,सस्दस्य परिवार के सदस्यॊं को नही देख रहे हैं,परिवार परिवारों को नही देख रहे हैं,गांव गांवो को नही देख रहे हैं,शहर शहरों को नही देख रहे हैं,प्रान्त प्रान्तों को नही देख रहे हैं,देश देशों को नही देख रहा है,अन्तराष्ट्रीय भागम्भाग के चलते केवल अपना ही स्वार्थ देखा और सुना जा रहा है.इस भागमभाग के चलते मानसिक शान्ति का पता नही है कि वह किस कौने मैं बैठ कर सिसकियां ले रही है,जब कि सबको पता है कि भौतिकता के लिये जिस भागमभाग में मनुष्य शामिल है वह केवल कष्टों को ही देने वाली है.जिस हवाई जहाज को खरीदने के लिये सारा जीवन लगा दिया,वही हवाई जहाज एक दिन पूरे परिवार को साथ लेकर आसमान से नीचे टपक पडेगा,और जिस परिवार को अपनी पीढियों दर पीढियों वंश चलाना था,वह क्षणिक भौतिकता के कारण समाप्त हो जायेगा.रहीमदास जी ने बहुत पहले ही लिख दिया था कि -गो धन,गज धन बाजि धन,और रतन धन खान,जब आवे संतोष धन,सब धन धूरि समान.तो जिस संतोष की प्राप्ति हमे करनी है,वह हमसे कोसों दूर है.जिस अन्तरिक्ष की यात्रा के लिये आज करोंडो अरबों खर्च किये जा रहे हैं,उस अंतरिक्ष की यात्रा हमारे ऋषि मुनि समाधि अवस्था मे जाकर पूरी कर लिया करते थे,अभी ताजा उदाहरण है कि अमेरिका ने अपने मंगल अभियान के लिये जो यान भेजा था,उसने जो तस्वीरें मंगल ग्रह से धरती पर भेजीं,उनमे एक तस्वीर को देख कर अमेरिकी अंतरिक्ष विभाग नासा के वैज्ञानिक भी सकते में आ गये थे.वह तस्वीर हमारे भारत में पूजी जाने वाली मंगल मूर्ति हनुमानजी के चेहरे से मिलती थी,उस तस्वीर में साफ़ दिखाई दे रहा था कि उस चेहरे के आस पास लाल रंग की मिट्टी फ़ैली पडी है.जबकि हम लोग जब से याद सम्भाले हैं,तभी से कहते और सुनते आ रहे हैं,लाल देह लाली लसे और धरि लाल लंगूर,बज्र देह दानव दलन,जय जय कपि सूर.आप भी नासा की बेब साइट फ़ेस आफ़ द मार्स को देख कर विश्वास कर सकते हैं,या फ़ेस आफ़ मार्स को गूगल सर्च से खोज सकते हैं. मै आपको बता रहा था कि शनि अपने को परेशानी क्यों देता है,शनि हमें तप करना सिखाता है,या तो अपने आप तप करना चालू कर दो या शनि जबरदस्ती तप करवा लेगा,जब पास में कुछ होगा ही नहीं,तो अपने आप भूखे रहना सीख जाओगे,जब दिमाग में लाखों चिन्तायें प्रवेश कर जायेंगी,तो अपने आप ही भूख प्यास का पता नही चलेगा.तप करने से ही ज्ञान,विज्ञान का बोध प्राप्त होता है.तप करने का मतलब कतई सन्यासी की तरह से समाधि लगाकर बैठने से नही है,तप का मतलब है जो भी है उसका मानसिक रूप से लगातार एक ही कारण को कर्ता मानकर मनन करना.और उसी कार्य पर अपना प्रयास जारी रखना.शनि ही जगत का जज है,वह किसी भी गल्ती की सजा अवश्य देता है,उसके पास कोई माफ़ी नाम की चीज नही है,जब पेड बबूल का बोया है तो बबूल के कांटे ही मिलेंगे आम नही मिलेंगे,धोखे से भी अगर चीटी पैर के नीचे दब कर मर गई है,तो चीटी की मौत की सजा तो जरूर मिलेगी,चाहे वह हो किसी भी रूप में.जातक जब जब क्रोध,लोभ,मोह,के वशीभूत होकर अपना प्राकृतिक संतुलन बिगाड लेता है,और जानते हुए भी कि अत्याचार,अनाचार,पापाचार,और व्यभिचार की सजा बहुत कष्टदायी है,फ़िर भी अनीति वाले काम करता है तो रिजल्ट तो उसे पहले से ही पता होते हैं,लेकिन संसार की नजर से तो बच भी जाता है,लेकिन उस संसार के न्यायाधीश शनि की नजर से तो बचना भगवान शंकर के बस की बात नहीं थी तो एक तुच्छ मनुष्य की क्या बिसात है.तो जो काम यह समझ कर किये जाते हैं कि मुझे कौन देख रहा है,और गलत काम करने के बाद वह कुछ समय के लिये खुशी होता है,अहंकार के वशीभूत होकर वह मान लेता है,मै ही सर्वस्व हूँ,और ईश्वर को नकारकर खुद को ही सर्व नियन्ता मन लेता है,उसकी यह न्याय का देवता शनि बहुत बुरी गति करता है.जो शास्त्रों की मान्यताओं को नकारता हुआ,मर्यादाओं का उलंघन करता हुआ,जो केवल अपनी ही चलाता है,तो उसे समझ लेना चाहिये,कि वह दंड का भागी अवश्य है.शनिदेव की द्रिष्टि बहुत ही सूक्षम है,कर्म के फ़ल का प्रदाता है,तथा परमात्मा की आज्ञा से जिसने जो काम किया है,उसका यथावत भुगतान करना ही उस देवता का काम है.जब तक किये गये अच्छे या बुरे कर्म का भुगतान नही हो जाता,शनि उसका पीछा नहीं छोडता है.भगवान शनि देव परमपिता आनन्द कन्द श्री कृष्ण चन्द के परम भक्त हैं,और श्री कृष्ण भगवान की आज्ञा से ही प्राणी मात्र केर कर्म का भुगतान निरंतर करते हैं.यथा-शनि राखै संसार में हर प्राणी की खैर । ना काहू से दोस्ती और ना काहू से बैर ॥

वासना के देवता कामदेव और कलयुग की समीक्षा

इस ब्रहमाण्ड के निर्माणकर्ता भगवान ब्रह्मा और सृष्टि के संहारकर्ता शिवजी पर कामदेव ने अपना प्रभाव दिखाया.दोनो ही देवता कामदेव से प्रभावित हुए । ऋषि नारद जो भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं, वे भी कामदेव से पीड़ीत हुए और माया के वशीभूत होकर परमात्मा को भी श्राप दे दिया । अन्य ऋषिगण भी कामदेव की चपेट में आये । विश्वामित्र जिन्होने गायत्री को प्रकट किया और गायत्री की कृपा प्राप्त की, ऐसे ऋषि पर भी कामदेव ने हमला किया,और इतना प्रभाव डाला कि परिणाम स्वरूप शकुन्तला का जन्म हुआ.ऋषि पाराशर महान तपस्वी और ऋषियों में अग्रगण्य अध्यात्म में बली,विज्ञानवेत्ता भी कामदेव से पीडित हुए,और व्यासजी का जन्म हुआ.कहने का अभिप्राय है कि हमारे ऋषि महऋषि महान योगी,तपस्वी थे,लेकिन काम पर विजय वे भी प्राप्त नही कर सके,काम के वशीभूत होकर गिरे लेकिन उन्होने पुन: तपकरने के बाद अपने पाप का प्राय्श्चित कर लिया.जिसके कारण उनकी कीर्ति अमर रही.असुर उसी के प्रभाव के अनुसार संसार उन्हें पूजता है,और आदर की द्रष्टि से देखता है.गोस्वामी तुलसी दासजी ने रामायण में कहा है:-अति विचित्र रघुपति कर माया.छूटहिं काम करहिं जो दाया,शिव चतुरानन देखि डराहीं,अपर जीव के लेखे माहीं,व्यापि रहेउ संसार महुं,माया करक प्रचंड,सेनापति कामादि भट,दंभ कपट पाखंड,सो दासी रघुबीर कै,समझे मिथ्या सौंपि,छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहेउ पद रोपि.यह कलयुग है,और कलयुग मल से पूर्ण है,महऋषि भृगु की वाणी के अनुसार कलयुग वायु मे मिश्रित हो जाता है.और वायु द्वारा कलियुग भक्त विरक्त सन्यासी बुद्धिजीवी के मस्तक को छूता है,तो उनकी बुद्धि मे विवाद पैदा हो जाता है.और उस कलयुगी वायु के प्रकोप से अपने श्रेय साधन से गिर जाते हैं.और बुद्धि मलीन हो जाती है.केवल जिनको ईश्वर का सहारा ही है,ऐसे भक्त गण कलियुग के ग्रास नही बनते.कामदेव ने देवाधिदेव को नही छोडा,तो इस भयंकर काल में हमारा क्या होगा,हम कब माया की चपेत मे आजायेंगे,इसका कुछ पता नही.याद रखें जन्म जन्मान्तर की तपस्या को पूर्ण करने के लिये शनि महात्मा बनाता है.यदि जरा सी असावधानी बरती,और शास्त्र आज्ञा का उलंघन किया,और मनमानी कर बैठे,तथा श्रेय साधन से गिर गये,तो प्रायश्चित रूप में जन्म पर जन्म लेने पडेंगे,और परमात्मा का दिव्य रस पान नही हो सकेगा.कबीरदासजी ने इसका सुन्दर विश्लेषण किया है-साधु कहावन कठिन है,जैसे पेड खजूर.चढे तो चाखे प्रेम रस,गिरे तो चकनाचूर.गोस्वामी जी ने मानस मे कहा है,नारी के नेत्रों से किसका जिगर भेदन नही हुआ है,उदाहरण मिलता है,केवल हनुमानजी,उनको नारी नयन का सर नही लगा था.हनुमानजी को काम क्रोध मोह,कोई भी अपना प्रभाव नही दिखा सके,उनके अन्दर माया भी नही व्यापी.इसका कारण यही था कि हनुमानजी ने अपनी सत्ता को अपनी सत्ता नही मानी,उन्होने भगवान राम को ही सब कुछ माना,इसी लिये ही वे भक्तों मे अग्रगण्य रहे.और माया से विचलित नही हुए.कहा भी है:-"है परमवीर बलवान मदन,इससे सब देव ऋषि हारे,तब मानव की क्या गिनती है,सोचो समझो दुनिया वारे,कलयुग ने ग्रसे सब धर्म कर्म,पाखण्ड दम्भ प्रचण्ड किया,माया मोह का पास डाल,मानव जीवन पथ भ्रष्ट किया,कलि मदन ग्रास नही हो सकते,हरिजन यदि हरि को सुमिरेंगे,तब होगा सफ़ल मानव जीवन,हरि ह्रदय मे जाय समाओगे.".

द्वादस भावों मे शनि

जन्म कुंडली के बारह भावों मे जन्म के समय शनि अपनी गति और जातक को दिये जाने वाले फ़लों के प्रति भावानुसार जातक के जीवन के अन्दर क्या उतार और चढाव मिलेंगे,सबका वृतांत कह देता है.

ज्योतिष में शनि

फ़लित ज्योतिष के शास्त्रो में शनि को अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है,जैसे मन्दगामी,सूर्य-पुत्र और शनिश्चर आदि.शनि के नक्षत्र हैं,पुष्य,अनुराधा,और उत्तराभाद्रपद.यह दो राशियों मकर,और कुम्भ का स्वामी है.तुला राशि में २० अंश पर शनि परमोच्च है ,और मेष राशि के २० अंश प परमनीच है.नीलम शनि का रत्न है.शनि की तीसरी,सातवीं,और दसवीं द्रिष्टि मानी जाती है.शनि [सूर्य]],चन्द्र,मंगल का शत्रु,बुध,शुक्र को मित्र तथा गुरु को सम मानता है.शारीरिक रोगों में शनि को वायु विकार,कंप,हड्डियों और दंत रोगों का कारक माना जाता है.

खगोलीय विवरण

नवग्रहों के कक्ष क्रम में शनि सूर्य से सर्वाधिक दूरी पर अट्ठासी करोड,इकसठ लाख मील दूर है.पृथ्वी से शनि की दूरी इकहत्तर करोड, इकत्तीस लाख,तियालीस हजार मील दूर है.शनि का व्यास पचत्तर हजार एक सौ मील है,यह छ: मील प्रति सेकेण्ड की गति से २१.५ वर्ष में अपनी कक्षा मे सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है.शनि धरातल का तापमान २४० फ़ोरनहाइट है.शनि के चारो ओर सात वलय हैं,शनि के १५ चन्द्रमा है.जिनका प्रत्येक का व्यास पृथ्वी से काफ़ी अधिक है.

Why and how is God Shani worshipped.

  1. After a pure bath, men should go to the deity’s foundation dressed in a wet cloth.
  2. Women cannot go to the foundation.
  3. If Shani is coming into your ‘rasi’
  4. If you are afflicted by Sade Saathi.
  5. If there is ‘adayya’ in your ‘rasi.’
  6. If you are suffering from the gaze of God Shani.
  7. If you are working in anything such as connected to iron, travel, trucks, transport, oil, petroleum, medical, press and courts.
  8. If you do any good work.
  9. If in your occupation is related to commerce and there is loss in business and worry thereof.
  10. If you are suffering from incurable diseases like cancers, AIDS, kidney, leprosy, paralysis, heart ailments, diabetes, skin ailments and are fed up, then you should most certainly worship God Shani with ‘ahishek’.
  11. One must remove the cap or head gear and then pray God.
  12. In the houses of devotees where there has been a birth or death recently, they do not go to the deity.

Shani Amavasya

On the Saturday of New Moon, it is known as Shaneshchari Amavasya. Normally, in a year, there will be two or three Shaneshchari Amavasya.The importance of Shaneshchari Amavasya lies in the fact that out of the rays of the Sun God, the main rays are called ‘Ama’. It is from the main rays of Sun God called ‘Ama’ that the Sun God gives brightness to the three worlds. In this ‘Ama’ day, especially, God Moon stays. Therefore, it is called Shani Amavasya. This Amavasya is known to give good fruits to all religions. In ‘Shradhya Karma’, this carries a lot of importance
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